
रात अब खामोश हो चुकी है। गाड़ियों का शोर, लोगों की आवाज़ें सब कुछ थम गयी हैं। ये वक़्त होता है जब मेरे तुम्हारे बीच में कोई आवाज़ दस्तक नहीं दे सकती। बातों का ज़रिया ये होता है कि हम तुमको लिखते हैं और ज़वाब में तुम पढ़ती हो। जब कुछ भी सुनाई नहीं देता तो हमें अपनी आवाज़ ही सुनाई देती है, और वो आवाज़ इतनी धीमी कि किसी और को सुनाई न दे और इतनी तेज कि हमको उसके अलावा कुछ सुनाई न दे। बात अजब ज़ुरूर है लेकिन बिलकुल सही है। मेरी आवाज़ में मुझे तुम ही सुनाई देती हो। तुम्हारा खिलखिलाना, तुम्हारा लजाना, तुम्हारा शरमाना, तुम्हारा घबराना, गुस्सा जाना ये सब कुछ सुनायी देता है। तुम्हारी आवाज़ के ये तमाम पहलू मिलकर धीमे धीमे एक पूरा आकार ले लेते हैं, ये आकार कुछ और नहीं तुम्हारा रंगीन अक़्स है। जिसे में छू लेता हूँ अपने होंठों से, जिसे देख लेता हूँ आँखों से, जिससे लिपट लेता हूँ।
और तुम ये मत समझना कि ये सिर्फ अक़्स है तुम्हारा। तुम शामिल हो इसमें थोड़ी अधूरी सी, उतनी अधूरी जितना अधूरा खुद को छोड़ गयीं थीं मेरे पास। पास तो हो ये सुकून है हमें। अब जब तुम पास हो, सामने हो तो बातें भी हज़ार, खुराफातें भी हज़ार, और शरारतें भी हज़ार। बातें वो जिनमें एक सपनों का घर उस पहाड़ों के शहर में जहाँ कम लोग रहते हैं और कम लोग ही जाते हैं और जहाँ जब हम दोनों सिमटना चाहें एक दूसरे की बाहों में तो हमें उस तरह केवल पाँचों साक्षी जमीं, पानी, आग, आसमान और हवा देखें और खुराफातें वो जब हम तुमको मोटू कह दें तो तुम थोड़ा तुनककर हमको कहो कि हमने कौन सा तुम्हारा हिस्सा खा लिया जो तुम पतलू के पतलू बने रहे और हम मुस्कुराकर वो क्ष त्र ज्ञ वाली छोटी सी इमला दोहरा दें तो तुम लजा जाओ और शरारतें वो जिसमे जब हम अपने होंठों को तुम्हारे कान के पास ले आकर कुछ खुसफुसाने की कोशिश करें तो तुम " धत् शैतान !! " बोलकर शरमाकर अपनी हथेलियों से अपना चेहरा छिपा लो और उँगलियों की दरारों में से चोर निगाहों से देखते हुए हमारी शैतानियों को भाँपने की कोशिश करो और इस जद्दोजहद के बाद जब तुमको समेट लेने की हमारी सारी कोशिशें नाक़ाम हो जाएँ, तब तुम हमको अपनी बाहों की क़ैद में लेकर हमको तमाम बेचैनियों से रिहा कर दो।
जब क़ैद में भी रिहाई महसूस होगी उस वक़्त पूरी प्रकृति सृजन में व्यस्त होगी। सृजन भी ऐसा जैसे समन्दर से वाष्पीकृत पानी बादल बनकर बरसने को आतुर, चाँद घूँघट ओढ़ कर सूरज में छिपने को आतुर, ओस की बूँद पत्ते के दामन में गिरकर मोती सी चमकने को आतुर और जैसे बरसात से ठीक पहले मयूर नाचने को आतुर। फिर चिड़ियोँ की चहचाहट से, हवा में पत्तों की सरसराहट से और तुम्हारे चेहरे पे बिखरती पहली किरण की घबराहट से तुम्हारी अलसाई आँखें खुलें और हमको अपने सिरहाने पे जागता देख तुम्हारी साँस शांत होकर हमारी साँसों की लय में आ जाए। उस वक़्त पौ फूटने की रस्म में हम अँजुरी में जल लेकर तुम्हारे साथ जीने और तुम्हारे साथ मरने का निश्चय कर लें। जैसे जैसे दिन चढ़ने लगेगा और तुम्हारा अक़्स कुछ धुंधला सा होने लगेगा हम तुमको तुम्हारे अक़्स से निकालकर गहरी साँसों से भर लेंगे अपने भीतर। और फिर सारा दिन तुम्हें सीने में छुपाये ये दिन बिताएँगे अगली खामोश रात के इंतज़ार में जब सब कुछ थमते ही तुम फिर मुक़म्मल हो जाओगी नयी बातों, नयी अदाओं और नयी नटखट शरारतों के साथ। अब प्रकृति के सृजन का वक़्त है, हम दोनों के मिलन का वक़्त है। आँख मूंदते ही तुमको आ जाना है। देर मत लगाना, दरवाज़ा खुला छोड़ रखा है हमने ।
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