मेरे पास लाल और काले रंग की एक चेक शर्ट थी. इतने छोटे में, जो छुटपन याद रह जाता है. मैं कभी वो शर्ट पहन के स्कूल गया. मैम थीं, मधु मैम. मुझे याद है वो केजी में हमें कैसे ‘पैसे पास होते तो चार चने लाते, चार में से एक चना चूहे को खिलाते’ याद कराती थीं. ‘वो गातीं थीं चूहे को खिलाते तो दांत टूट जाता, दांत टूट जाता तो बड़ा मजा आता’ मैं चूहे के लिए दुखी हो जाता था. मुझे लगता वो खाना कैसे खा पाएगा. अपराधबोध सा लगता, जैसे मैंने साजिश करके चूहे के दांत तोड़ दिए. मुझे चूहे के दांत टूटने पर दुःख होना उस दिन बंद हुआ जिस दिन मैंने गन्ने से एक चूहे को मार दिया था.
मधु मैम को जाने क्यों वो चेक शर्ट बहुत अच्छी लगी. बाद में उन्होंने वैसा कपड़ा बहुत खोजा, अपने ब्लाउज के लिए. मम्मी-पापा बताते हैं बाद में शायद उनने कहीं खोज भी लिया था. मुझे याद नहीं. मैनें उन्हें कभी पहने नहीं देखा. जब तक में मैं हाईस्कूल में पहुंचता मधु मैम नहीं रहीं. मुझे वजह नहीं पता, बस ये पता है वो नहीं रही. ठीक वैसे ही जैसे हमारे बचपन की सारी चीजें एक दिन नहीं रहतीं और हम ध्यान भी नहीं दे पाते वो कैसे खत्म हो गईं. मैंने मधु मैम के जाने के बाद उन्हें ध्यान किया था. मुझे लगता था वो अच्छी औरत थीं, वो किसी चूहे के दांत टूटने पर खुश नहीं होतीं. और मैं चाहता था कि उन्हें उसी चेक का ब्लाउज पीस मिल गया रहा हो.
चेक शर्ट मुझे थोड़े अजीब लगते हैं. वो फॉर्मल से नहीं होते, पर उसके आस-पास होते हैं. आप उन्हें लापरवाही से भी पहन सकते हो. शर्ट इन करना दुनिया के सबसे घटिया कामों में से है. हममें से हर किसी के पास एक शर्ट होती है. जो हमारी सेकेंड स्किन बन जाती है, वो शर्ट कभी पुरानी नहीं लगती, कभी गंदी नहीं लगती, उसे पहनने से पहले सोचना नहीं पड़ता. प्रेस नहीं करना होता, आप उसमें कभी बुरे नहीं लगते. ‘
मेरे पास एक चेक शर्ट है, कॉलेज के फेयरवेल के लिए ली थी, वो मेरी फेवरेट शर्ट है. वो शर्ट मैनें तब भी पहनी थी. जब पहली नौकरी पर पहले दिन गया था. जिस दिन शहर छोड़ा उस दिन भी. पहले इंटरव्यू में भी. उस दिन भी जब मेरा जन्मदिन था, और कंधे पर वो भाई, जिसने महीने भर एक्सीडेंट की चोटों से जूझने के बाद दम तोड़ दिया. घटनाओं के क्रम थोड़ा उलट- पुलट गए हैं. यादें रैंडम आती हैं. मैं याद करता हूं तो हर दुःख में या खुशी में खुद को उसी शर्ट में पाता हूं, जैसे वो शर्ट नहीं मैं हूं. और ये बहुत मिडिल क्लास सी बात है. वो शर्ट मुझे उस उम्र में मिली थी जब हमारा बढ़ना बंद हो जाता है, मैं पहले पापा को एक शर्ट सालों-साल पहनते देखता था. मेरी तो तीन महीने में छोटी हो जाती थी. अब शर्ट पहनता हूं तो लगता है मैं भी पापा जैसा हो गया हूं.
हमारी फेवरेट शर्ट हम जैसी होती है. अपनी तमाम अच्छाइयों-बुराइयों के बावजूद कभी बुरी नहीं लगती, जैसे हम खुद को कभी गलत नहीं लगते. हमें पता होता है पीठ तरफ एक जगह उसका धागा नुच गया है. एक जगह हल्दी छुआ गई थी. फिर साबुन से धुलकर लाल हो गई है. लेकिन हम उसे पहनते रहते हैं. क्योंकि हम ऐसे ही हैं. चीजें ऐसी ही होती हैं.