काल से होड़ लेने वाला, काल के कपाल पर लिखने वाला, कभी हार नहीं मानने वाला, रार नई ठानने वाला भारतीय राजनीति का एक अपराजेय योद्धा चला गया. वक्त ने आखिरकार भारतीय राजनीति के पुरोधा, बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को छीन लिया. लंबी बीमारी के बाद 93 साल की उम्र में उनका निधन हो गया.
डिमेंशिया नामक बीमारी के शिकार वाजपेयी को 11 जून, 2018 को दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती करवाया गया था. इसके अलावा उन्हें गुर्दे (किडनी) में संक्रमण, छाती में जकड़न, मूत्रनली में संक्रमण जैसी दिक्कतें भी थीं. 15 अगस्त को जब पूरा देश स्वतंत्रता की 72वीं वर्षगांठ मना रहा था, एम्स की ओर से देर रात एक प्रेस रिलीज़ जारी कर बताया गया कि वाजपेयी की हालत बेहद गंभीर है. एम्स की ओर से ये भी बताया गया कि उन्हें पूरी तरह से लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रखा गया है. सुबह होते-होते एम्स के बाहर भीड़ जमा होने लगी थी. 15 अगस्त की रात से लेकर 16 अगस्त की सुबह तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू के अलावा बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुरेश प्रभु, अरुण जेटली, स्मृति ईरानी और कई अन्य लोग एम्स पहुंचे थे. अस्पताल के बाहर खड़े समर्थकों के हाथ दुआओं के लिए उठे थे, लेकिन वक्त ने किसी की भी नहीं सुनी. आखिरकार 16 अगस्त को वाजपेयी का निधन हो गया.
भारतीय राजनीति में अजातशत्रु की हैसियत रखने वाले वाजपेयी जितना अपनी पार्टी में लोकप्रिय थे, उतना ही विरोधी दलों में भी. विरोध करने वाले लोग भी वाजपेयी के विरोध में बस इतना ही कह पाते थे कि आप आदमी तो अच्छे हैं, लेकिन गलत पार्टी में हैं. संसद हो या फिर संसद के बाहर, अगर वाजपेयी भाषण देने के लिए खड़े होते, तो सन्नाटा पसर जाता. लोग कान लगाए उनकी बातें सुनते रहते थे. सत्ता के शिखर पर तीन बार पहुंचने वाले पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी की सियासत 1957 में दूसरे आम चुनाव के दौरान जनसंघ के टिकट पर बलरामपुर लोकसभा सीट से जीत के साथ हुई थी.
भारतीय राजनीति के कई रंग देखने वाले वाजपेयी इमरजेंसी में जेल गए, कविता के जरिए इमरजेंसी की कहानियां सुनाईं. जब इमरजेंसी खत्म हुई और चुनाव के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी, तो अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बनाए गए. बतौर विदेश मंत्री संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन को जब उन्होंने हिंदी में संबोधित किया, तो भारतीय राजनीति के साथ ही भारतीय इतिहास का भी ये ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया. 21 मई 1996 को जब वाजपेयी ने पहली बार सियासत के शीर्ष पर पहुंचे, उसके 13 दिन के बाद ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. लेकिन इस्तीफे वाले दिन उन्होंने जो भाषण दिया, उसे आज भी सियासत में दिलचस्पी रखने वाले लोग यूट्यूब पर खोज-खोजकर सुनते हैं.
1998 में 13 महीने के प्रधानमंत्री रहे वाजपेयी ने भारत के लिए वो कर दिया, जिसके बाद सामरिक तौर पर भारत दुनिया के ताकतवर देशों की लिस्ट में शामिल हो गया. एक-एक करके पांच परमाणु परीक्षणों ने वाजपेयी को भारतीय राजनीति में और भारत को वैश्विक स्तर पर वो मुकाम दिया, जहां देश ताकत और शोहरत के लिए किसी का मोहताज नहीं रह गया. 1999 के आम चुनावों में एनडीए की सरकार के मुखिया वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने और पांच साल तक सरकार चलाई. 2004 में इंडिया शाइनिंग के नारे के बावजूद बीजेपी चुनाव हार गई, लेकिन वाजपेयी की शोहरत में कोई कमी नहीं रही.
2005 में बीमारी की वजह से सियासत से बढ़ी दूरी ने वाजपेयी को इतना बीमार कर दिया कि वो फिर राजनीति में सक्रिय नहीं हुए. 2005 में मुंबई के शिवाजी पार्क में बीजेपी के रजत जयंती समारोह के दौरान रैली को संबोधित करते हुए वाजपेयी ने घोषणा की कि वो चुनावी राजनीति से रिटायर होंगे. 2009 तक बतौर लखनऊ के सांसद उन्होंने अपनी जिम्मेदारियां निभाईं, लेकिन इसी दौरान उन्हें एक स्ट्रोक आया और फिर वो कभी बिस्तर से ही नहीं उठे. 11 जून, 2018 को जब उन्हें उठाकर अस्पताल ले जाया गया, तो फिर वो अपने घर कभी नहीं लौटे. बीमारी बढ़ती गई और उम्मीदें घटती गईं. आखिरकार 16 अगस्त 2018 को वाजपेयी ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
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