ये सरकारी बस थी भी या नहीं ये तो नहीं पता, मगर इसका किराया बिलकुल सरकारी था। मात्र तैंतीस रूपए।
बस में घुसा तो बहुत सीटें खाली दिखाई दे रही थी। अलावा विंडो सीट के। हर विंडों सीट पे कोई न कोई चिपका हुआ था, ये सोचकर कि जब तक बस नहीं चल रही, इस दैत्याकार गर्मी से कुछ राहत मिलेगी।
थोड़ा आगे बढ़कर मैं सीट का चयन करने लगा तो मुझे एक दादा दिखाई दिए करीब पैंसठ साल के। मैंने सोचा अनुभवी आदमी लग रहे हैं, इन्ही के बगल बैठ जाता हूँ और आगे का रास्ता भी पूछ लूँगा। सो वहीँ बैठ गया।
थोड़ी देर में बस मुचामुच्च भर गयी। कुछ बीच में खड़े भी थे, कुछ दो पे तीन भी एडजस्ट हो गए थे और कुछ आगे गियर बॉक्स पर शिफ्ट हो गए थे। करीब पंद्रह मिनट की झुलसा देने वाली गर्मी के बाद बस चली और एक ठंडा-ठंडा कूल-कूल झोंका, चेहरे को चूम कर निकल गया। शरीर फिर से थोड़ा चैतन्य हो गया था। अगल बगल के लोगों और वस्तुओं पर अब ज़्यादा ध्यान दे पा रहा था।
इस छोटे शेहेर बस के अंदर का दृश्य भी यूपी की तमाम आदर्श बसों की तरह ही था। गियरबॉक्स के बगल स्पोर्ट्स शूज़ और बैग के साथ बैठा एक सेमी-ग्रेजुएट छात्र, बुर्के में बैठी एक महिला जो अपने बच्चे को बार-बार इतने चुप-चाप तरीके से दाँट रही ही कि कोई सुन न ले, कॉम्पिटिशन की तयारी करने वाला वो लौंडा जो अब तमाकू खाना सीख गया है, एक बुज़ुर्ग जिनके बीड़ी पीने पर कोई आपत्ति नहीं कर सकता, अम्बानी टाइप एक आदमी जिसका हर पाँच मिनट में फोन आता है, गोविंदा का एक डाईहार्ड फ़ैन जिसने “अँखियों से गोली मारे” रिपीट मोड पर डाल दिया है..और ऐसे तमाम लोग।
मेरे बगल के आगे वाली सीट पर एक बहू, जो हाल में माँ बनी है, अपने बच्चे को खिलाते पुचकारते अपनी सास के साथ सफ़र कर रही है। अमूमन उससे खुन्नस खाने वाली उसकी सास भी दादी बनने से इतनी गदगद है कि “आया” की तरह अपनी बहू की देखभाल करने में फूली नहीं समा रही है। उस महीने-दो महीने के शिशु ने भी तरह-तरह की शकल बनाके पूरा समाँ बाँध रखा है। ठीक बगल में बैठी एक पम्मी टाइप आंटी जो उस शिशु में काफी इंट्रेस्टेड हैं और जिसके चलते वो उस बच्चे को खिला भी रही हैं और नियमित इंटरवल पर उस बच्चे की माँ को शिशु पालन के टिप्स भी दे रही हैं।
उधर दूसरी तरफ छोटे शेहेर की बस में अक्सर विलायती मेम की उपाधी पाने वाली बाइस-तेईस साल की एक लड़की है जिसने पूरी बस को इग्नोर करते हुए कान में इयरफोन ठूंस लिया है और किताब पढ़ रही है। जिसका फायदा उठाते हुए लौंडों से लेकर अधेड़ उम्र के तमाम व्यक्ति उस बाला का मुआयना कर पा रहे हैं। लड़की इन सब से बेखबर है। लेकिन उसके बगल की सीट पे बैठा एक अंतर्मुखी लौंडा है, लड़की को देख कम रहा है और सोच ज़्यादा रहा है। आखिर इंट्रोवर्ट है execution से ज़्यादा analyze करना उसका धर्म है। देखो क्या सीन बनता है।
खैर, एक बात जो बस के प्रत्येक व्यक्तियों में सामान थी, वो ये कि सबसे सब हिल रहे थे। बस चालक की अंधाधुंध चलवाही के चलते अपना थूथुन और जबड़ा बचाने की कोशिश कर रहे थे। और काफी हद तक सफल भी थे!
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