आज के दौर में इश्क़ क्रांति की तरह फ़ैल रहा है। एक रोग, जैसे की डाईबेटिस! हाँ ऐसा ही कुछ। क्योंकि उम्र के एक पड़ाव के बाद 80% लोगों को डाइबिटीज हो ही जाती है, वैसे ही एक नज़ुक उम्र में ये इश्क़ का फितूर भी उफान मारने ही लगता है। हाँ इसका एक कंट्रीडिक्शन भी है के इश्क़ की कोई उम्र नही होती,सीमा नही होती, और एस्पेक्टशन नही होती। ये कभी भी, कहीं भी और किसी से भी(कई बार तो एक से ज्यादा लोगों से भी) हो जाता है। ये हो जाता है बिना किसी मतलब के निःस्वार्थ अनवरत और निष्कपट।
ये किसी बेड़ियों में नही बंधता,किसी बॉउंड्री में भी नही। जात-पात, धर्म-अधर्म, ऊच-नीच(अब तो स्त्री-स्त्री या पुरुष-पुरष) का कोई भी भेद नही। ये परवान चढ़ता है क्लास की उस कॉर्नर वाली बेंच से या सीनियर क्लास वाली उस क़ातिल मुस्कान वाली लड़की(जिसे सीनियर भईया लोग गाल में गड्ढों के कारण “डिम्पल” बुलाते थे) से। सामने वाले मिश्रा जी की बड़की बेटी से या कॉलेज में साथ बैठने वाली चोट्टी सहेली से। bio वाली मैम से या maths वाले सर से। जब वो इश्क़ में होते हैं तो स्कूल की प्रार्थना में ईश्वर पर ध्यान कम और उनपर ज्याद रहता है। दोनों में जो भी पहले क्लास में आता है वो दूसरे के लिए बैग रख कर सीट छिका ही लेता है।
इश्क़ का कोई ओर, कोई छोर नही होता। इनकी दुनिया गोल नही पैरलल होती है समान्तर होती है। ये अनन्त तक साथ जाते हैं और हिंदुस्तान में तो ज्यादार कहानियां अनन्त तक जाती तो है पर मुकम्मल नही होने पाती। कितने किस्से खत्म हो जाते हैं क्योंकि एक ब्राह्मण है तो दूसरा कायस्थ, एक क्षत्रिय है तो दूसरा पठान, एक मारवाड़ी है तो दूसरा सिंधी। हाँ लेकिन प्रयास हर कोई करता है भरसक प्रयास! कोई मीलो दूर जाता है सिर्फ 15 मिनट की मुलाक़ात के लिए तो कोई लंच टाइम में लंच नहीं बस उनके दीदार करता है। कोई अपनी कार, पार्किंग करके उनके साथ ऑटो में जाता है तो कोई दोस्त की चिरौरी करके बाइक मांग कर उनको फील करते हुए ड्राइव पे जाता है। इनके लिए पाने से कहीं ज्यादा बढ़कर साथ होना इम्पोर्टेन्ट होता है। कहानियाँ भले ही अधूरी हों पर इश्क़… इश्क़ तो मुकम्मल होता है। हमेशा।
ये अधूरा इश्क़ भी कम सुन्दर नही होता। इसमें होती है मीठी किचकिच, लड़ाईयां, झगड़े, झड़प और बेवजह प्यार, फ़िक्र और उनसे दूर होने पे उनके पास रहने का एहसास। बड़ा ही खूबसूरत होता है अधूरा इश्क़। किसी बना देता है ये शायर तो किसी को कवि। आजकल तो टूटे हुए दिल से या तो लेखक प्रेम कहानियां लिख रहे हैं या फिर इंजीनियर अपनी मोहब्बत के किस्से।
बहुत विविधतायें है हिंदुस्तान के इश्क़ में। अब तो इश्क़ क्रानितकारी भी हो गया है। किसी को एडमिशन लेना है बी.एच.यू. में क्योंकि वो पढ़ती हैं वहाँ! किसी को बैंक पीओ बनना है क्योंकि उनके उनकी शादी तय हो रही है अगले साल। किसी को इंस्पेक्टर बनना है क्योंकि वो पी.एच् डी कर रही है नखलऊ विश्विद्यालय से और माँ-बाप को टक्कर का लौण्डा चाहिए।
प्रेम आयाम बदल देता है यहाँ। भारत में 90% लोग गलत प्रोफेसन में है। उनको ये पता ही नहीं के वाकई में उनकी रूचि किस क्षेत्र में है। और इन 90% के 75% इस प्रेम के कारण। के कुछ भी हो जाये बस वो मिल जाएँ। ये सुबह 10 से शाम 5 ड्यूटी भी करते हैं और जब 6 बजे छुप के मिलने पहुँचेगा तो चेहरे पे मुस्कान होगी माथे पे शिकन नही। ये सन्डे को किसी मूवी थियेटर में नही बल्कि उनके साथ किसी मन्दिर की सीढ़ियों पर या किसी पेड़ की छाँव में बतियाना प्रिफर करते हैं। इन्हें कार की लॉन्ग ड्राइव से ज्यादा पैदल अम्बेडकर मैदान में घूमना अच्छा लगता हैं। कंधे पे हाथ रख के चलने से ज्यादा उँगलियों को कटिया की तरह फसां के चलना पसंद करते हैं। क्रांति इस क़दर बढ़ जाती है जहाँ फिजिकल रिलेशनशिप जैसी चीजे हावी ही नहीं होती हैं। ऐसी कोई भी दुर्घटना भी नही होती के एक दूसरे की नज़र में कोई गिर जाये या आत्मग्लानि हो!
ये पढ़ते तो ओशो को है पर फॉलो प्रेमचन्द को करते हैं। गुलज़ार की नज़्म में जीते है। “हम चीज है बड़े काम की यारम…” गुनगुनाते हैं। ये वेटिंग टिकट लेके चले जाते है असम तक ये जानते हुए भी के वापिस आने में लगने वाले 3 दिन ये अकेले ही होंगे। वो कोचिंग बंक करके साथ में सिर्फ इसलिए बैठी है के उसका रिजल्ट खराब आया है और उसको सबसे ज्यादा जरूरत उसी की है। ये उनकी मुस्कान देखने के लिए पुरानी टाइट फिटिंग वाली शर्ट पहन के जाते है क्योंकि उन्होंने गिफ्ट की थी और वो अपनी फेवरेट स्पोर्ट्स घड़ी छोड़ उनकी दी हुई घड़ी पहन के आती हैं के उनके चेहरे पे मुस्कान खिल उठे।
इनको अपने सनम की मोटाई से भी प्यार है उनके गोरे-गोरे बच्चों जैसे मुखड़े और उनके मोटे चश्मे के पीछे छिपी कमजोर नज़रों से भी। प्रेम है उनके सांवले चेहरे पे हुए पिम्पल्स से… क्यूट लगते हैं वो। उन पतली कलाइयों से प्यार है जिसमे कोई घड़ी भी फिट नहीं होती।
ये इश्क़, प्रेम, प्यार, मोहब्बत सब सीमाओं से परे हैं जितना भी आप इनको बंधना चाहेंगे न उतना हो खोते चले जयेंगे। रेत जैसा होता है मुट्ठी में बन्द करने की कोशिस करेंगे तो हाथ में बस कुछ धूल ही आएगी। पछतावे की धूल। ये ताक़त हैं एक दूसरे की कमजोरी नही।
तो जाइये इश्क़ कीजिये। छज्जे पे चढ़कर, क्लास में उनको पलट के देख कर या उनके साथ भीड़ में चलकर। उनके बेतुके जोक्स पे हँसकर, उनकी मीठी आवाज़ में गाने सुनकर, उनके कॉलेज के सामने इंतज़ार करकर।उनके साथ गोलगप्पे खाकर, मोमोस खाकर या उनकी बानायी हुई maggi खाकर। बताकर, सुनकर, पढ़कर या लिखकर… इकरार कीजिये, चिल्लाकर, मुस्कुराकर, उनके छत पे चिट्ठी फेककर. फोन करकर, उनकी कॉपी के पीछे लिखकर, उनकी हथेली पे ऊँगली से नाम लिखकर, मुस्किया कर या आँखों से बताकर! अगर वो रूठीं हो तो मनाइये और खुद रूठें हो तो ऐसे ही मान जाइये। क्योंकि इश्क़ अब सिर्फ “कुछ कुछ होता है” तक सिमित नहीं अब “माँझी” और “मसान” तक जा पहुंचा है। अब प्रेम ज़ेहन में बसता है किसी मुट्ठी में नही। अब ये लाखों के दहेज़ और स्विफ्ट डिजायर को लात मार रहें है क्योंकि जो सुक़ून उनकी ज़ुफों की छावं में है वो कहीं नही। खैर…
जाइये इश्क़ कीजिये साहेब!! और हाँ जो इश्क़ करना पड़े तो वो क्या घण्टा इश्क़ है। इश्क़ तो हो जाता है मिया और होने के बाद इश्क़ किया नहीं जाता निभाया जाता है। इसके लिए करेजा-जिगरा नही बस एक दिल चाहिये। क्योंकि ये कर्तव्य नही क्रांति है।
सबसे पहले इस पूरे लेख पर मेरी ओर से साधुवाद। लिखते रहिये ऐसे ही मनमोहक लेख।
किन्तु कुछ समीक्षा भी करना चाहता हूँ चूंकि लेख कई भागों में विभक्त है तो पैराग्राफ वाइज़ ।
पैराग्राफ 1:
मोहब्बत कही भी किसी से भी हो सकती है मगर एक से ज्यादा लोगो से वो भी कई बार….न , शायद उसका सही नाम "दिल्लगी" है।
हाँ , वही दिल्लगी , जो अक्सर छठे या सातवे क्लास से शुरू होती है और खत्म कहा होती है इसकी कोई सूचना कोई आँकड़ा कुछ भी उपलब्ध नहीं है।
पैराग्राफ 2:
यह सर्वथा सत्य है कि प्रेम बेड़ियों में नहीं बंधता, लेकिन कई बार दोनों में से कोई भी या दोनों भावनात्मक रूप से मजबूर हो सकते है।
और ये कह सकते है कि "मजबूरियों के नाम पे सब छोड़ना पड़ा….दिल तोड़ना कठिन था मगर तोडना पड़ा.." और रही बात बैग रखकर सीट हथियाने वाली तो भाई इश्क़ में ऐसे गैर जरूरी काम ही जरुरी लगते है।
पैराग्राफ 3 एवं 4:-
हिंदुस्तान में इश्क़ की कहानी जिस अनंत तक जाती है उसका नाम शादी है। और ये अधूरा इश्क़ इसलिए सुन्दर है क्योंकि इसमें भावो की प्रधानता होती है ऐसे भाव जिसमे सब आपके मन का होता है। और कोई भी ऐसा काम जो आपके ह्रदय (मन) को तकलीफ पहुचाये वो किसी न किसी रूप में तो बाहर आना ही है चाहे वह कविता हो ,लेख हो या कोई गीत। और इसके लिए किसी विशेष "डिग्री" की आवश्यकता भी नहीं होती है। ये स्वतः आता है अंतरात्मा से।
पैराग्राफ 5 एवं 6:-
ये इश्क़ का "पॉजिटिव साइड इफ़ेक्ट" है । कम से कम आगे चलके भविष्य तो उज्जवल हो जाता है।
पैराग्राफ 7 एवं 8
बेशक प्रेम आयाम बदल देता है लेकिन 90% लोग इश्क़ की वजह से गलत प्रोफेशन में है यह बात आज की परिस्थितयो पर लागू नहीं होती।
बाकी जो वर्णित है वह तो प्रेम का सौंदर्य है चाहे वो आंबेडकर पार्क में घूमना हो या उंगलियों को "कटिया" की तरह फसां कर चलना। और रिजल्ट ख़राब आने पर या किसी विकट परिस्थिति में व्यक्ति केवल उसी के पास जाने की या बात करने की इच्छा रखता है जिसे वो प्रेम करता है। ये स्वाभाविक है।
पैराग्राफ 9 एवं 10:
उपसंहार:- इश्क़ कीजिये। इस पूरे लेख के माध्यम से जो पैगाम दिया गया है वह प्रशंसनीय है। कि कुछ भी करिये इश्क़ करिये और निः स्वार्थ कीजिये। परिस्थिति कैसी भी हो । और सिर्फ प्रेमी- प्रेमिका वाला ही नही वरन सब से मोहब्बत कीजिये।
ये बड़े शायर का शेर लिखकर अपनी समीक्षा को विराम दे रहा हूँ…कहा है कि—-
"आज हम दोनों को फुर्सत है…
चलो इश्क़ करे..
इश्क़ हम दोनों की जरुरत है…
चलो इश्क़ करें…
इसमें नुक्सान का खतरा ही नही रहता….
ये मुनाफे की तिजारत(व्यापार) है…
चलो इश्क़ करें…
मैं हिन्दू, तुम मुस्लिम, ये सिख, वो ईसाई… यार छोड़ो…. ये सियासत है…
चलो इश्क़ करें।✍✍✍✍✍
P.S.- समीक्षा करने का उद्देश्य लेख में लिखी बातों पर तर्क करना बिलकुल भी नहीं है ।
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आपकी उत्साहवर्द्धक समीक्षा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद मोहदय। बस आप लोग ऐसे ही साथ देते रहे तो ये कारवाँ बढ़ता ही जायेगा। और हाँ आप भी बहुत अच्छा लिखते हैं। कोशिश करेंगे की अगली बार आपके व्यूज को ध्यान में रखे। बहुत बहुत आभार।